बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

नागरिकता संशोधन के आयाम

CAA शरण देने के लिये ही तो बना है। तभी तो मुसलमान सीएए का विरोध कर रहे हैं कि अखण्ड  भारत से तोड़ कर बने इस्लामी देशों में प्रताड़ित हिन्दू सिख आदि  जो भारत भाग कर आये हैं उन्हें यहाँ शरण और नागरिकता नहीं मिले। 

वास्तविक विरोध यही है। बाकी सब सेकुलरिज्म भाईचारा आदि के नाम पर सीएए का विरोध झूठी निर्लज्ज बकवास है। भारत का बँटवारा तो इस्लाम के ही नाम पर हुआ था। विभाजन के बाद पश्चिम पाकिस्तान में हिन्दू २१ प्रतिशत थे जो अब मात्र १.८ प्रतिशत रह गये हैं। पूर्व पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश) में ३२ प्रतिशत से घट कर ७ प्रतिशत ही रह गये हैं। बचे भारत में हिन्दू ८४ से ७८% पर आ गिरे हैं और मुस्लिम बढ़ कर १०% से १५ हो गये हैं। फिर भी यहाँ रोना मचा रहता है कि "इस्लाम खतरे में है"। यद्यपि संविधान की धाराओं २६-३० और कई संशोधनों, अधिनियमों, न्यायालयों के निर्णयों, सरकारी नीतियों से वे भारत के प्रथम श्रेणी, सर्वोच्च वरीयता के नागरिक हैं और उनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक सरकारी योजनाओं तथा व्यय का लाभ ताल ठोककर  उठाते हैं। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ही हिन्दू घट गये जबकि। फिर कहते हैं "क़ाग़ज़ नहीं दिखायेंगे" किन्तु वोट देने को हाथों में सभी कागज़ पकड़े पंक्ति में खड़े रहते हैं, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने को सभी कागज़ तैयार देते हैं। 

हर‌ समय अल्पसंख्यक का राग अलापने का लगा रहता है। किन्तु भारतवर्ष के ही आठ राज्यों-  जम्मू-काश्मीर, लक्षद्वीप, नागालैण्ड, मिज़ोरम, मेघालय आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं किन्तु उन्हें अल्पसंख्यक नहीं गिना जाता है सभी योजनाओं का लाभ क्रमशः मुस्लिम व ईसाई समुदाय को ही मिलती है। फिर भी झूठ-मूठ छाती पीटने का लगा रहता है कि भारत में "हिन्दू सांप्रदायिकता से अल्पसंख्यकों का दमन हो रहा है"। हिन्दुओं के मन्दिर सरकारों के नियंत्रण में हैं जहाँ अव्यवस्था का ठीकरा बड़ी चतुराई से ब्राह्मण समुदाय पर मढ़ दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे क्रमशः उनके समुदायों के ही हाथ में है। यहाँ तक कि कैथोलिक चर्च की नियुक्तियाँ तो सीधे सीधे विदेशी सत्ता वैटिकन सिटी से होती है। हिन्दुओं के पास अपने विद्यालय एवं शिक्षा व्यवस्था भी नहीं है जबकि अल्पसंख्यक अपने संस्थान धड़ाधड़ खोले जा रहे हैं। मात्र अल्पसंख्यक संस्थानों में ही उन्हें अपनी धार्मिक शिक्षा देने का अधिकार है, हिन्दुओं में अपराध है। हिन्दू अपने शिक्षालयों में प्रवेश तथा नियुक्ति मात्र सरकारी नियमों से ही कर सकते हैं, जबकि "अल्पसंख्यक" अपने यहाँ पूर्णरूपेण स्वतंत्र हैं और अर्हता भी कम रख सकते हैं ऐसा स्पष्ट अधिनियम, विभाग है- RTE, NCMEI, ९३वां संविधान संशोधन आदि। 

शिक्षा और धर्म दोनों ही हिन्दुओं के पास नहीं अतः वे पिछली दो तीन पीढ़ियों से उत्तरोत्तर धर्म विमुख, परंपरा द्रोही और सेकुलिब हो गये हैं यहाँ तक कि अब तो नाममात्र हिन्दू वे सेकुलर भारतीय गणराज्य का भी विरोध करने से नहीं हिचकते। कतिपय हिन्दू जिन्हें आध्यात्म/धर्म चाहिये तो मंदिरों के सरकारी नियंत्रण में उसकी शिक्षा है नहीं अतः हिन्दू नामधारी बाबाजी लोगों / कथावाचकों की चल पड़ी है जिनका किसी भी हिन्दू परंपरा / शास्त्र द्वारा कोई मान्यता नहीं है। वहीं मुसलमान / ईसाई अपनी अपनी सीख अपने अपने पंथों के उपासना स्थल और अपने चलाये शिक्षा संस्थानों से ही पाते हैं और अपने अपने मतावलंबियों के साथ ही सुदृढ़ बने रहते हैं और शासनतंत्र की भी बाँहें मरोड़ कर अपने काम निकाला करते हैं। वहीं हिन्दू तो फोकट के सीवरजल पीने को उतावला हुआ रहता है। 

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