शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

हिन्दू मन्दिर नियन्त्रण और १९६० का दशक

यह tweet जिससे विवाद हुआ 


कहाजारहाहैकि ISKCON ने परंपरा को पुनः लाने का जो सफल प्रयास किया है वह अतुलनीय है। Tweet साझा किया था क्योंकि उसमें एक विकट प्रश्न को उठाया गया था। अन्तर्जाल पर लोग क्या टिप्पणी कर रहे हैं वह कोई रोक नहीं सकता और वह मूल विषय है भी नहीं। विषय है कि यदि हिन्दू मन्दिर सरकार ने अधिग्रहण कर रखे हैं तो Iskcon क्यो नहीं और Iskcon मुक्त हैं तो अन्य मन्दिर क्यों नहीं। क्या तथ्य है इसके पीछे? यह कोई साधारण विषय नहीं है। 

हमारे स्पष्ट विचार हैं कि हमारे सभी हिन्दू मन्दिर सरकारी हस्तक्षेप और अधिग्रहण से मुक्त होने ही चाहिये। यहां उल्टा है। मन्दिर छोड कर सभी मुक्त हैं। 
आर्य समाज, लिंगायत, स्वमिनारायण, Iskcon आदि के मन्दिर मुक्त हैं, परम्परागत सनातन धर्म के मन्दिर सरकारी नियंत्रण में हैं। सभी को यह जान कर सम्भवतः आश्चर्य भी ना हो क्योंकि हम धर्म के प्रति उदासीन संवेदनहीन हो गये हैं। गुरुद्वारे, चर्च, मस्जिद, जिनालय सभी मुक्त हैं। यही कारण है कि Iskcon आदि के मतावलम्बी ने स्वयम् को अभिव्यक्त किया, एक वस्तुतः तथ्य को भी अनदेखा नहीं कर पाये। किन्तु हिन्दू विषयों पर वर्षों से इतना कुछ साझा करने पर भी किसी को कोई अन्तर नहीं पडता। 

कभी कोई सोचे कि देश के बहुसंख्यक मात्र के देवालय ही सरकारी नियंत्रण में क्यों हैं? और इसकी छवि देश समाज की दशा और गति से समझ जाइये। मन्दिरों की संपत्ति पर सबकी दृष्टि सबसे पहले गयी, सभी की वही है। हिन्दू जन में धर्म के प्रति उदासीनता का कारण ही है कि हम मन्दिरों के होते हुए भी उनसे दूर कर दिये गये हैं। व्यवस्था तंत्र ने मन्दिरों पर अधिग्रहण कर लिया और उन्हें धार्मिक सामाजिक राजनैतिक जागृति करने देने से दूर कर रखा है। मन्दिर में श्रद्धालु दान देते हैं धर्म कर्म हेतु वह सरकारी कोश में डाल दिया जाता है secular खरचो के लिये। दोष मढा जाता है "अथाह संपत्ति, अव्यवस्था और पण्डितों" पर जैसे सभी हिन्दू द्वेषी करते हैं। That's called propaganda. 

व्यवस्था तंत्र ७० वर्षों बाद भी हिन्दू समाज को उत्तरोत्तर जातियों मे वैधानिक नैयायिक प्रशासनिक रूप से बांटता जा रहा है, विदेशी शासक पन्थों को भी पिछडा बता कर आरक्षण दे कर दोष ब्राह्मणो पर डाल कर दुष्प्रचार कर समाज को बांटा जा रहा है। ७० वर्षों से तो ऐसा क्या विकास हुआ जबकि वंचित समूहो की संख्या बढ़ती ही जा रही है? आप हिन्दुओं की उदासीनता के कारणो में जाना नहीं चाहते। 
1960 के दशक तक ऐसा नहीं था। उन वर्षों में ऐसा क्या हुआ यह जानना नितांत आवश्यक है। 

१९५२-५६ के हिन्दू code bills जिनका प्रभाव अगले दशक तक लागू किया गया जिनसे हिन्दू पारिवारिक/व्यक्तिगत/सामाजिक/पैतृक विधान secular शासन के अधीन हो गये जबकि अहिन्दू पंथ छोड़ दिये गये, १९६०-६१ का भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन जिसने क्षेत्रवाद को जन्म दिया, १९६१-६७ में अनेकों गौरक्षा आन्दोलन को नृशंसता से कुचल देना जिसमें शङ्कराचार्यों को जेल में सडाया गया, शङ्कराचार्यों के गुरु धर्म सम्राट् स्वामि करपात्री जी महाराज को जेल में बन्द रखा गया जहाँ उन पर प्राणघाती छुरेबाजी भी हुई जिससे वे किसी प्रकार बचे, नये राज्यों ने मन्दिरों का अधिग्रहण व्यापक स्तर पर किया जिससे साधु संतों का प्रभाव मिटे, नये राज्यों ने व्यवस्था और राजस्व आदि के नाम पर हिन्दू code bills को सभी स्तर पर व्याप्त कराया। जनसङ्ख्या नियंत्रण और एकल परिवार के बहाने हिन्दू undivided family aka HUF यथा संयुक्त परिवार को समाप्त कराना आरम्भ किया, १९६९ में शिक्षा जो से ही विधर्मियों के हाथ थी उसे पूर्णरूपेण कम्युनिस्टोको दे दिया गया, न्यायपालिका से शास्त्रज्ञ न्यायधीशों को क्रमशः हटवाना आरम्भ किया गया... 
यही दशक है जब परम्परा से विलग नये समुहो का उदय हुआ जिन्हें ऊपर से बहुत बढावा दिया गया ताकि जिससे परम्परागत धर्म और संप्रदाय क्षीण हों। 
 यह संक्षिप्त सार मात्र है। 🙏🏻🙏🏻
Autocorrect के कारण मात्राओं आदि में त्रुटि को क्षमा करियेगा 🙏🏻

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