हमें भूखे रहना सह्य है किंतु पग पग पर अपमानित होते धर्म व क्षण क्षण हताहत होते धार्मिक जनों विशेषकर हमारी महिलाओं के प्रति पतित म्लेच्छों द्वारा अपहरण, बलात्कार तथा पैशाचिक हिंसा के प्रति आँखें मूंद लेना निरा कायरतापूर्ण एवम् पूर्णतः असह्य है।
विकास का मार्ग किस काम का यदि हम लुटेरों डकैतों से सुरक्षा की व्यवस्था नहीं कर के उन्हें ही समान अधिकार व सम्मान देने की बातें करने लग जायें? बिच्छू, मकड़ी, सर्प, लकड़बग्घा, सियार आदि कभी अपनी प्रवृत्ति छोड़ सकते हैं क्या?
जिनका उदय तथा कर्तृत्व ही न्याय व धर्म की समाप्ति अपितु समूल नाश के ही उद्देश्य के साथ हुआ हो वे हमारे भाई/मित्र/सहभागी/सहचर कैसे हुए? विधर्मियों,शत्रुओं एवम् अधर्मियों के आमूलचूल विनाश के बिना अथच काम,अर्थ,धर्म,मोक्ष इति मनुष्यजन्म के यह चारों मूल उद्देश्य तो बारंबार विफलता को ही प्राप्त होंगे!
हमारा वर्तमान व भविष्य का देश क्या ऐसा होना चाहिये या इससे भी भयावह? जो कि प्रवाह देखकर स्पष्टतया प्रतीत होता है! हमारी संतति,तदनुसार उनकी संतति? उन्हें हम इसीलिये इस संसार में ला रहे हैं जहाँ हमारी अकर्मण्यता से उत्तराधिकार में उन्हें अधम नीच म्लेच्छ-यवनों से प्रतिपल सर्वत्र क्या मिलेगा? भय, आतंक, कायरता, छल, लज्जाजनित निर्लज्जता, हिंसा, यौन शोषण, हत्या, विध्वंस, बलात् मतांतरण, दंगे, सामूहिक हत्याकाण्ड..इत्यादि इत्यादि जिनका सकल फल होगा- अत्यंत लज्जास्पद रूप से अस्तित्व का अंत??
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